यादगार पल

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गुरुवार, 21 मई 2015

मोहब्बत को मन में सजाये हुए हैं ••! (कविता)

मैं भी अन्जान था वो भी अन्जान थी
जिन्दगी के सफर में एक पहचान थी
दोनों के नयन जब आपस में मिले
दिल में हलचल हुई मन सजल हो उठे
तब  बातों का सिलसिला शुरू हो गए
वो कुछ कहने लगी मैं कुछ कहने लगा
बातों के दरमियान प्यार पनपने लगा
क्षण-प्रतिक्षण एक दूसरे में घुलने लगे
खुशियाँ मिली जैसे फुल खिलने लगे
एक सुहानी डगर का निर्माण हुआ
जिस पर हम दोनो सफर करने लगे
मौज-मस्ती की दुनिया में हम बढ चले
इस दुनिया से कुछ लोग अन्जान थे
उनको ऐसा लगा हम गलत हो गये
इस मोहब्बत पर उनकी नजर लग गई
हुआ वही जो, वे  लोग चाहने लगे
जिवन मे एक ऐसा तूफान आ गया
न चाहते हुए भी दिल विछड़ने लगा
वो दूर होती गई मैं दूर होता गया
पल-भर मिलने को दिल तरसता रहा
जब मोबाइल का सिग्नल जुड़ गया
नम्बर का आदान- प्रदान हो गया
कुछ दिनों तक आवाज़ कान में आती रही
एक दिन बातों ही बातों में तकझक हुई
कुछ दिनों तक आवाज़ बन्द हो गई
मै मैसेज के जरिए धन्यवाद देता रहा
अन्ततः मैसेज का उसे कुछ असर हुआ
फिर बातों का सिलसिला शुरू हो गया
दोनों एक दूसरे  को देखने के लिए
वो भी तड़पती वहाँ मैं तड़पता यहाँ
वो भी मजबूर वहाँ  मैं मजबूर यहाँ
दोनो मिलने की तरकीब बनाते रहे
लेकिन मिलने की कोशिश नाकाम रही
फिर भी भविष्य में आस लगाये हुए हैं
इस उम्मीद से प्यार को बनाए हुए है
मोहब्बत को मन  में सजाये हुए हैं
---@रमेश कुमार सिंह

मंगलवार, 19 मई 2015

मैं दुखी हूँ...

मैं दुखी हूँ -
अपने आप से नहीं,
इस समाज से,
पुरे समाज से नही,
समाज में बिखरी हुई,
विसंगतियों से।
जो विश्वास के आड़तले,
खड़ा होकर पुरा करते हैं,
स्वर्थसिद्धि।
मैं दुखी हूँ उनसे -
जो जनता को धोखे में रखकर,
अपने को नतृत्वकर्ता कहते है।
सहारा लेते हैं -
झूठे वादे, झूठे सपने,
झूठे शान-शौकत का।
इन्हीं को हथियार बनाकर,
जनता को करते हैं गुमराह।
इसी में जनता बन जाती है मोहरा।
मैं दुखी हूँ उनसे -
चलने लगते हैं,
उन्हीं के रास्ते पर,
मान लेते हैं उनको भगवान,
सौप देते हैं उनको इन्द्रासन,
नहीं पता है उनके अन्दर,
घर बनाये बैठा है,
शैतान।
मैं दुखी हूँ उनसे -
जो करते हैं,
जनता से विश्वासघात,
समाज को बनाते हैं- दागदार,
कुप्रवृत्ति को जन्म देते हैं,
असमाजिकतत्व को को जन्म देते हैं।
मैं दुखी हूँ उनसे -
ऐसे ही नेतृत्वकर्ता से
ऐसे ही सन्तुष्टीकर्ता से
ऐसे ही समाजिकर्ता से।
-----@रमेश कुमार सिंह
-----१०-०४-२०१५

रविवार, 17 मई 2015

मेरी जिंदगी का एक लम्हा ....!! (संस्मरण)

अपने गाँव से लेकर बनारस तक खुशी पूर्वक शिक्षा लेकर आनन्द पूर्वक जिवन व्यतीत कर रहे थे तभी एक तुफान आया जो  हमारी जीवन के बरबादी का शुरूआत लेकर। एक फूल की तरह हमारी जिन्दगी सवंर ही रही थी कि बारिश के साथ आया तूफान फूल के पंखुड़ियों को झड़ा दिया बस बाकी रह गया वो पत्तियां और टहनिया जिसके जरिए जीना है ।इसी बिच आशा की किरण जगी, जिसके सहारे मैं आगे बढ सकता था वो  शिक्षण का आधार था। नहीं पता था इस आशा की किरण में कहीं निराशा भरी दुनिया कि भी शुरूवात होती है यही आधार ने एक तरफ जीने की कला सीखाई वही दूसरी तरफ संघर्ष करने की या समस्याओं से निपटने की राह दिखाई।
               उसी आशा की किरण के सहारे मैं आगे बढ सकता था  । तभी इस पतझड़ रूपी दुनिया में कोई बारिश की बुन्दे टपकाकर ताजा करने की कोशिश की और उसी के सहारे यह पतझड़ धिरे-धिरे हरा-भरा  होकर लहलहाने लगा और खुशी के मारे झुम उठा  इतना झुम उठा कि वह भूल गया कि पतझड़ की प्रक्रिया अपने समय पर निरन्तर चलते रहती है और इसी के साथ वो धिरे-धिरे आँखों के रास्ते दिल में उतर गई।बस सिलसिला शुरू हुआ एक सुहाना पल का पता नहीं था इस सुहाने  पल में छिपी हुई गम की बदलीं है जो छायेगी तो छाये ही रह जायेगी ।
@रमेश कुमार सिंह ♌,०८-०२-२०१३
http://shabdanagari.in/website/article/मेरेजिन्दगीकाएकलम्हासंस्मरण